हरियाणा:पूरा देश 1971 भारत-पाक युद्ध की स्वर्ण जयंती मना रहा है । आपको बता दें 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान पर भारत की जीत एक ऐतहासिक जीत थी जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में, जनरल शैम मानेक्शा, सेना अध्यक्ष, वायु सेना अध्यक्ष, एयर चिफ मार्शल प्रताप चंन्द्र लाल, नौ सेना अध्यक्ष, एडमिरल सरदारी लाल मथरादास नंदा, पीवीएसएम, एवीएसएम के मार्गदर्शन एवं कुशल सामरिक सूजबूझ से भारतीय सेना ने जनरल अरोड़ा के नेतृत्व में केवल 13 दिन में पाकिस्तानी सेना के 93000 सैनिकों को बंदी बनाकर उनके जनरल नियाजी को हथियार डालने पर मजबूर कर दिया और पाकिस्तान के दो टुकडे कर बांग्लादेश का जन्म हुआ। यह युद्व भारत के लिए ऐतिहासिक और हर देशवासी के दिल में उमंग पैदा करने वाला साबित हुआ जिसे हम हर वर्ष 16 दिसंबर को ‘विजय दिवस’ के रूप में मनाते है।
1971 के युद्व में करीब 3900 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे और 9851 सैनिक घायल हो गए थे। इसी युद्व में जिला रेवाडी के गाँव जाटुसाना की ढ़ाणी के 5 कोसलिया जांबाज भाईयों ने पाकिस्तानियों के छक्के छुडा दिये थे। इन भाईयों में सबसे बडे र्स्वगीय सुबेदार रामचंद्र यादव जो उस समय सेना की तोपखाना की 78 मिडियम रेजीमेंट में नायब सुबेदार के पद पर तैनात थे जो वीर भूमि होते हुए बाग्लादेश सीमा पर गई थी जो बाद मे बंगलादेश (पूर्व इस्ट पाकिस्तान) के अंदर पहुंच गये थे, जिन्होंने आर्टिलरी गन से धुआंधार फाइरिंग कर पाकिस्तानी सैनिकों को तबाह किया था । दूसरे भाई र्स्वगीय सुबेदार सोहनलाल भी इसी रेजीमेंट में एजुकेशन जे. सी. ओ. के पद पर तैनात थे। तीसरे भाई र्स्वगीय कर्नल शिम्भू दयाल जो उस समय कालुचक में 47 एयर डिफेंस रेजीमेंट में कैप्टन के पद पर तैनात थे जिन्होने दुश्मनों के हवाई जहाजों का जीना हराम कर दिया था तथा बाद में श्रीलंका मे भी तमिल टाइगर के खिलाफ भी अच्छा प्रदर्शन करने का मौका मिला तथा कर्नल रैंक से 1998 में रिटायर हुए। चौथे भाई सुबेदार मेजर श्योताज सिंह सेना की ई. एम. ई. कौर में हवलदार आरमोरर के पद पर सेवारत थे तथा 4 सिख रेजिमेन्ट मे कार्यरत थे, जिन्हांेने मुक्तिवाहिनी में लंुग्गी तथा बनियान पहन कर खुलना में, मुक्तिवाहिनी जो बंगलादेश की आजादी चाहने वाले युवाओं की थी, में शामिल होकर उनके हथियारों की मरम्मत की थी तथा उनको हथियार चलाने का प्रशीक्षण दिया था पाक सेना की नजर से बचकर। सुबेदार मेजर श्योताज सिंह युद्व शुरू होने के 4 महिने पहले से ही मुक्तिवाहिनी सेना के साथ थे। पांचवे भाई नायक बनवारी लाल, जो रेलवे के कर्मचारी थे उस समय रेलवे के साथ जुड़ी टेरीटोरियल आर्मी में ड्यूटी पर तैनात थे। जिन्हे पहले तो उधमपुर में गोला बारुद भंडार की सुरक्षा में लगाया गया तथा बाद में पाकिस्तानी कैदियो के लिए बनाए गए कैंप में उन्हें सुरक्षा कर्मी के तौर पर तैनात किया गया था। इन पॉचों भाइयों ने 1962 हिन्द-चीन युद्ध तथा 1965 के भारत -पाक युद्ध में भी अपना सैनिक योगदान र्पूणतया सैनिक परम्परा के अनुरुप दिया था । उस समय जाटुसाना की ढाणी में केवल 25 घरों की आबादी थी जिसके 21 सैनिक उस समय भारतीय सेना कि तरफ से पाकिस्तान के खिलाफ युद्व में शामिल थें और युद्व समाचार सुनने के लिए केवल रेडियों का सहारा था। आप उस परिवार एवं गॉव की मनोस्थिति का अंदाजा लगा सकते है जिसके परिवार से एक साथ पांच भाई देश के लिए युद्ध लड़ रहे थे तथा गाँव के कुल 21 सैनिक सीमा पर तैनात थे।
उसी परिवार मंे जन्में मेजर ड़ॉ0 टी सी राव उस समय 14 साल के थे तथा उन्होंने अपने सैनिक परिवार की परंपरा को कायम रखते हुए अपनी पढाई समाप्त किये बगैर अपने दादाजी की कुमाऊँ रेजीमेंट मे 1976 में भर्ती हुए। अपनी कर्मठता, झुझारूपन, योग्यता, त्याग एंव निपुणता के आधार पर सेना में रहते पी. एच. डी. की ड्रिगी हासिल की और सेना अधिकारी बने। सेना से वर्ष 2000 में स्वेछिक सेवानिवृती लेकर समाज कल्याण के कार्यो में जुट गए जो पिछले 18 सालों से लगातार जारी है। उनके छोटे भाई ने भी सेना में राजरिफ टैरिटोरियल बटालियन में 20 साल की सेवा की जिसमें 15 साल कश्मीर में रहे तथा उग्रवादियों से लोहा लेते रहे ।